गायत्री मन्त्र का अर्थ, महिमा, लाभ एवं प्रभाव

वेदमाता गायत्री इनका मंत्र जो कि 24 अक्षरों से बना है, इन अक्षरों में अनंत ज्ञान का भंडार छुपा हुआ है| इनमें 24 बीज अक्षर है | गायत्री के गर्भ में सर्वांगणीय ज्ञान है | गायत्री का साधक लोक परलोक सभी जगह सुख एवं शांतिमय बन सकते हैं | गायत्री के साधक की पूर्ण भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है, दोनों ही दृष्टि से यह बहुत अर्थपूर्ण है, अगर गायत्री को गंभीरतापूर्ण समझा जाए और मनन किया जाए तो सम्यक ज्ञान का स्त्रोत अविरल होता है| गायत्री तीर्थ राज है, यही त्रिवेणी है, इनकी महिमा अनंत है| गायत्री के साधक को सुबुद्धि की प्राप्ति होती है, हम अपनी उल्टी बुद्धि के कारण ही स्वर्ग को नर्क बना लेते हैं | गायत्री में हमारी दृष्टि को बदल देने की अद्भुत क्षमता है, वही हमारी खोखली विचारधारा हमारा मिथ्यामय मन, हमारा मनोमय कोष, हमारी आकांक्षाए, हमारी इच्छाए, हमारी विचारधाराए, अगर उचित स्थान पर आ जाए तो यह मनुष्य देह ही देव योनि से बढ़कर है|

Gayatri Mantr

भूः – भूः लोक स्वर्गलोक से भी ज्यादा आनन्ददायक हो सकता है| गायत्री का साधक वेदमाता को सर्वव्यापक समझकर गुप्त रूप से भी पाप नहीं करता उसका मन निर्मल होता है, वह अपने आप को बड़ा ही आनन्दमय अनुभव करता है| पराम्बा को अपने अंदर अनुभव करने में आत्मा पवित्र होती है, इससे हमें चैतन्यता और आनंद की अनुभूति होती है, साधक लोग प्राणों को भूः लोक कहते हैं, समस्त प्राणियों में सामान्य रूप से फैला हुआ है यह इस बात का संकेत है कि यह सब एक समान है, सब मनुष्यों और प्राणियों को समान ही देखना चाहिए |

र्भुवः– संसार के सभी दुखों का नाश र्भुवः कहलाता है | र्भुवः का मतलब होता है संसार के सभी दुखों का त्याग हो, कर्तव्य भावना से किया गया प्रत्येक कर्म जो सुख की लालसा से नहीं करते वही लोग सदा प्रसन्न रहते हैं|

जो कर्मयोगी अपने हर कर्म को कर्तव्य समझकर करते हैं ऐसे कर्मयोगी हरदम सुखी रहते हैं|

स्वः –  यह मन की स्थिरता का निर्देश है यह आपके चंचल मन को सुस्थिर और स्वस्थ रखने का संदेश देता है | सत्य में हमेशा मग्न रहो वह यही कहता है जो संयमी साधक होते हैं, वह तीनों प्रकार के सुख को प्राप्त करते हैं|

तत्‍ः – शब्द यह बतलाता है | इस संसार में वही बुद्धिमान है जो जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानता है और वह आसक्ति रहित जीवन जीता है|

सवितुर्‌ – सवितुर्‌ हमें यह बतलाता है, मनुष्य को सूर्य के समान बलवान होना चाहिए| सभी की अनुभूतियां आत्मा में समाहित है, ऐसा विचार करना चाहिए | सूर्य की शक्ति से ही संसार की समस्त क्रियाएं होती है, अपनी क्रियाशीलता के द्वारा ही प्रारब्ध, भाग्य, देह आदि सभी कुछ आपके पूर्व कर्मों का ही परिणाम है इसलिए आपके सामने जो भी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, आपको उसी के योग्य अपने आप को समझना चाहिए | तुम्हारा भाग्य निर्माण तुम्हारे अपने कर्मों में होता है | आत्म निर्माण आपके अंदर की यात्रा में आपके बाहर की यात्रा में सहायक होती है | एक साधक को तेजस्वी, बलवान, पुरुषार्थी बनना चाहिए | स्वास्थ्य, विद्या, धन, चतुरता, संगठन, यश, साहस, सत्य यह आंठ बलो के द्वारा अपने को बलवान बनाना चाहिए |

वरेण्यम –  वरेण्यम यह प्रकट करता है, आपको नित्य श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए श्रेष्ठ देखना, श्रेष्ठ चिंतन करना, श्रेष्ठ विचारना, श्रेष्ठ कार्य करना, इससे साधक को श्रेष्ठता की प्राप्ति होती है | हम वैसे ही बनते हैं जैसे हमारे विचार होते हैं | हम जैसे विचारों में डूबे रहते हैं हमारा जीवन वैसा ही बनता है | वैसा ही हम आचरण करने लगते हैं | हमें वैसे ही साथी मिलने लगते हैं, उसी दिशा में जानकारी और प्रेरणा मिलती है|

अगर आप लोगों को अपने आप को श्रेष्ठ बनाना है तो श्रेष्ठ लोगों के साथ बैठना पड़ेगा, श्रेष्ठ पुस्तके पढ़ें, श्रेष्ठ कार्य करें, श्रेष्ठतम लोगों में श्रद्धा रखना पड़ेगी |

भर्गो – भर्गो हमें यह बताता है, साधक को निष्पाप बनना चाहिए, पापों के कारण ही दुख है, इसलिए जो दुखों से भयभीत है जिन्हें सुख की इच्छा है, उन्हें चाहिए कि पापों से बचें जो पाप किये हैं उनके लिए प्रायश्चित करें निष्पापता में ही सच्चा आनंद है |

देवस्य – यह पद बताता है कि मनुष्य देह मरण धर्मा है, वह ही अमरता या देवत्व को प्राप्त कर सकता है, देवताओं के समान जिनकी शुभदृष्टि है जो परमार्थ करते हैं, प्राणियों की सेवा करते हैं, ऐसे साधक के अंदर और बाहर देवलोक की सृष्टि होती है |

पराम्बा की बताई हुई इस सृष्टि में जो कुछ भी है, वह पवित्र और आनंदमय है इस संसार को प्रसन्नता की दृष्टि से देखना ईश्वर की बनाई गई इस सृष्टि में मनुष्य के द्वारा बनाई गई बुराई को खत्म करना |

ईश्वरीय श्रेष्ठताओं को विकसित करना यही देव कर्म है, इस देव दृष्टि को धारण करने से साधक देव बन जाता है| प्राणियों को प्रेम और आत्मयता की पवित्र दृष्टि से देखना अपने आचरण को पवित्र रखना अपने से निर्बल को ऊंचा उठाने में अपनी आध्यात्मिक शक्ति का दान करना यह देवत्व है, जिसमें यह सब गुण होते हैं, उसके लिए भूः लोक भी देवलोक के समान आनन्दमय बन जाता है |

धीमहि –  धीमही हमें बताता है कि हम सब लोग अपने हृदय में सब प्रकार की पवित्र शक्तियों को धारण करें इसके बिना हम कभी भी सुख शांति को उपलब्ध नहीं हो सकते अनेक भौतिक शक्तियां हैं, इस संसार में धन की शक्ति, पद की शक्ति, राज्य की शक्ति, सौंदर्य की शक्ति, शस्त्र की शक्ति, विद्या की शक्ति, बुद्धि की शक्ति साधक इनके बल पर ऐश्वर्य और प्रशंसा भी प्राप्त कर सकता है पर यह सुख बहुत है अस्थाई होता है, छोटे से आघात से ही यह सुख नष्ट हो जाता है, देव सम्पदाओं से ही परम सुख की प्राप्ति होती है “जय नाथ परमसुख होय” निर्भयता विवेक स्थिरता, उदारता, परमार्थ, स्वाध्याय, तपस्या, दया, सत्य, अहिंसा, नम्रता, धैर्य, अद्रोह, प्रेम,  न्यायशीलता इन देव गुणों के कारण जिन सुखों की प्राप्ति होती है वह भौतिक सुखों से नहीं होती|

धियो – धियो हमें बताता है हम सभी शास्त्रों और वेदों को मथ मथ कर उसका मूल अर्क अमृत निकालें फिर उसे आत्मसात करें क्योंकि शुद्ध बुद्धि ही सत्य का ज्ञान पाती है इस शुद्ध बुद्धि को ही प्रज्ञा कहते हैं |

योन: – योन:  से हमारा तात्पर्य है कि हमारे पास जो भी साधन और शक्तियां हैं, वह न्यून है या फिर अधिक है उसके न्यून से भी न्यून भाग को अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रयोग में लाएं और शेष को निस्वार्थ भाव से अशक्त व्यक्तियों में बांट दें |

प्रचोदयात् – प्रचोदयात् का अर्थ है कि हम स्वयं को और दूसरों को भी सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे|

भूः शरीर र्भुवः संसार स्वः आत्मा यह तीनो ही पराम्बा के क्रीड़ा स्थल हैं | इस निखिल ब्रह्माण्ड को पराम्बा का विराट रूप समझकर आध्यात्म की उच्च भूमिका को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए | पराम्बा को सर्वत्र, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर देखने वाला मनुष्य माया, मोह, सकीर्णता, अनुदारता, कुविचार आदि कुकर्मों में झुलसने से बच जाते हैं |