बुद्ध महात्म्य
अहं भाव को जो उत्पन्न करता है वह अविद्या है जिस विधि से अहं भाव क्षीण होता है, जिससे वह गल जाता है,बिखर जाता है, टूट जाता है वह विद्या है। विद्या हमें विनय प्रदान करती है जबकि अविद्या अहंकार को जन्म देती है। हम सब अविद्या में जीते हैं, सभी राजमुकुट पहनना चाहते है, राज मुकुट आपके अहंकार के सिर पर बंधता है। वह आपके सिर पर नहीं बंधता है।
हम इसे इतना जटिल क्यों बना लेते है यह सब हमारी सोच पर निर्भर करता है जबकि सहजता का ही दूसरा नाम साधना है, साधनाएँ सहज है, यह असहज बिल्कुल नहीं हैं, मान लो तो हार है, ठान लो तो जीत है, यह सब आप पर निर्भर करता है आप क्या सोचते है? जैसी आपकी सोच होगी वैसा ही नतीजा आपको मिलेगा, सब कुछ आप पर निर्भर है। मैं तुम्हें व्यर्थ की कुछ ऊँट-पटाँग साधनाओं में उलझाना नहीं चाहती इसमें न तो मेरा रस है और न ही इससे तुम्हें कुछ हासिल होने वाला है, आप लोगों को व्यर्थ में कुछ उल्टा सीधा न करना पड़े, इसे ही मैं निखार कहती हूँ जो साधक जितना सहज होता है उसमें उतना ज्यादा निखार आ जाता है।
आइना मुझसे मांगे मेरा पुराना चेहरा, जो पुराना है उसे आप भूल जाओ जो आज है उसे आप सहजता से स्वीकार करो और दिन प्रतिदिन निखरते चले जाओगे। एक दिन तुम इतना निखर जाओगे सिर्फ प्रकाश बचेगा और कुछ नहीं बचेगा।
एको ही नाम, एको ही कार्य, एको ही ध्यान, एको ही ज्ञान, आज्ञाम् सदैवम् परिपालयंतिं, गुरूत्वं शरण्यम् गुरूत्वं शरण्यम्। मुझे तुम्हारे अलावा तुम्हारी बातों के अलावा 24 घण्टे कुछ आता नहीं हंै, यही ध्यान है, यही ज्ञान है, यही पूजा है, यही साधना है, यही ईश्वर तक, पराम्बा तक पहुंचने का सही मार्ग है।