दीक्षा
गुरू से सीखना नहीं पड़ता गुरू के साथ होना पड़ता है। गुरू से तो हम दूर खड़े होकर भी सीख सकते हैं। सीखने के लिए पास आने की जरूरत नहीं है पर साथ होने के लिए बहुत निकटता होना चाहिए। इसके लिए साधक में एक आंतरिकता होना चाहिए। एक भरोसा होना चाहिए बहुत गहरी श्रद्धा होना चाहिए। एक प्रकार की दीवानगी पागलपन होना चाहिए।
किसी को अपने ज्यादा निकट लाने के लए आपके अंदर एक क्षमता होना चाहिए जिससे ट्रांसमिशन होता है। दीक्षा कए मतलब ही ट्रांसमिशन है। दीक्षा के माध्यम से ही गुरू-शिष्य का सामंजस्यव स्थापित होता है। दीक्षा के माध्यम से गुरू अपने शिष्य की आँखों में झाँकता है। उसे समझता है फिर शिष्य की उन्नति के लिए वह अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा लगा देता है।